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| अर्जुन पाण्डेय |
जगदलपुर.भारत माता की जय। जब भी ये शब्द उच्चारित होते हैं, मन में एक अलौकिक ऊर्जा का संचार होता है. यह ऊर्जा कोई साधारण भाव नहीं, अपितु उस अमर गीत की शक्ति है जिसने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान करोड़ों भारतीयों के हृदय में राष्ट्रप्रेम की ज्वाला प्रज्वलित की थी. भारत का राष्ट्रीय गीत 'वंदे मातरम्' अपनी रचना के 150 वर्ष पूरे होने के ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ा है. यह केवल एक संख्या का उत्सव नहीं है, बल्कि उस अमर मंत्र के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने का अवसर है, जिसने अपनी डेढ़ शताब्दी की यात्रा में करोड़ों भारतीयों को राष्ट्रीय गौरव, एकता और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष की प्रेरणा दी.
07 नवंबर 2025 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा नई दिल्ली में इस राष्ट्रव्यापी स्मरणोत्सव का भव्य शुभारंभ किया जा रहा है, जो अगले एक वर्ष तक चलेगा और एक विशेष चरणबद्ध कार्यक्रम के तहत 7 जनवरी 2026 तक राष्ट्रीय भावना को मुखर करेगा. यह उत्सव महज एक सरकारी आयोजन नहीं है; यह राष्ट्रीय आत्मा के उस स्पंदन को पुनर्जीवित करने का महायज्ञ है, जिसे बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने 1870 के दशक में अपनी लेखनी से प्रकट किया था। यह गीत, जो एक समय ब्रिटिश राज के विरुद्ध विद्रोह का जयघोष था, आज भी देश की विविध संस्कृतियों और भाषाओं के बीच एकता का सबसे सशक्त सेतु बना हुआ है।
'वंदे मातरम्' केवल शब्दों का समूह नहीं, बल्कि एक जीवंत प्रतीक है जो भारत की आत्मा को प्रतिबिंबित करता है। इस गीत की प्रत्येक पंक्ति में मातृभूमि की सुंदरता, शक्ति और पवित्रता का वर्णन है, जो श्रोता के हृदय को झंकृत करता है। आज, जब विश्व पटल पर भारत एक उभरती हुई महाशक्ति के रूप में चमक रहा है, यह गीत हमें स्मरण कराता है कि हमारी जड़ें कितनी गहरी और मजबूत हैं। इस स्मरणोत्सव के माध्यम से हम न केवल अतीत का सम्मान करेंगे, बल्कि भविष्य के भारत को एक मजबूत नींव प्रदान करेंगे। यह लेख 'वंदे मातरम्' की ऐतिहासिक यात्रा, इसके सांस्कृतिक महत्व और वर्तमान उत्सव के विभिन्न आयामों को विस्तार से उजागर करेगा, ताकि पाठक इस अमर गीत की गहराई को महसूस कर सकें।
मंत्र जो क्रांति बन गया
'वंदे मातरम्' का शाब्दिक अर्थ है 'मैं मां की वंदना करता हूँ'। इसकी रचना महान साहित्यकार बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने 1870 के दशक में की थी। बंकिम चंद्र, जिन्हें 'बंगाली साहित्य के पितामह' कहा जाता है, का जन्म 1838 में पश्चिम बंगाल में हुआ था। उनकी कलम ने उन्हें अमर बना दिया। 1870 के दशक में, जब ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जड़ें भारत में गहरी हो रही थीं, बंकिम चंद्र ने 'आनंदमठ' उपन्यास की रचना की, जिसका प्रकाशन 1882 में हुआ। इस उपन्यास की पृष्ठभूमि 18वीं शताब्दी के संन्यासी विद्रोह पर आधारित थी, जब बंगाल के संन्यासी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के शोषण के विरुद्ध विद्रोह कर रहे थे। उपन्यास में 'वंदे मातरम्' गीत एक संन्यासी द्वारा गाया गया है, जो मातृभूमि को देवी के रूप में पूजते हुए ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष का आह्वान करता है। गीत की पहली पंक्तियाँ हैं: "वंदे मातरम्, सुफलां मातरम्..." जो मां भारती की सुंदरता का वर्णन करती हैं। यह गीत संस्कृत और बंगाली का मिश्रण है, जो इसे एक पवित्र मंत्र जैसा बनाता है। बंकिम चंद्र ने इसे संस्कृत के प्राचीन मंत्रों से प्रेरित होकर लिखा, ताकि यह केवल साहित्यिक न हो, बल्कि आध्यात्मिक भी हो।
रचना के तुरंत बाद यह गीत बंगाल से निकलकर समूचे देश में फैल गया। यह राष्ट्रीय आंदोलन का अभिन्न अंग बन गया। 1905 के बंगाल विभाजन के विरोध में स्वदेशी आंदोलन के दौरान, 'वंदे मातरम्' ने क्रांति की ज्वाला को तीव्र कर दिया। स्वदेशी आंदोलन में लाखों भारतीयों ने ब्रिटिश वस्तुओं का बहिष्कार किया और स्वदेशी उत्पादों को अपनाया, और इस गीत ने उन्हें एकजुट किया।
यह गीत केवल गायन तक सीमित न रहा; यह विद्रोह का प्रतीक बन गया। महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक, सुभाष चंद्र बोस जैसे नेताओं ने इसे अपनाया। स्वतंत्रता संग्राम में इस गीत की भूमिका अहम थी। ब्रिटिश सरकार ने इसे प्रतिबंधित करने की कोशिश की, 1907 में इसके गायन करने पर सजा दी जाती थी। फिर भी सैकड़ों स्वतंत्रता सेनानियों ने इसे गाते हुए लाठियां खाईं, जेल गए। भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारियों के लिए यह प्रेरणा स्रोत था। यह गीत हर भारतीय को उसकी मातृभूमि की शक्ति और सुंदरता का स्मरण कराता था, जिससे राष्ट्रीय पहचान बलवती होने के साथ ही आत्मसम्मान की भावना प्रबल हुई। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद संविधान सभा ने 'वंदे मातरम्' को 'राष्ट्रीय गीत' का सम्मानजनक दर्जा प्रदान किया।
अर्जुन पाण्डेयसहायक संचालक

